Tuesday, August 20, 2013

ई बदरी बइरसी

ई बदरी बइरसी
ई बदरी बइरसी

पुरबे से उठाय हे
पछिमे तक जाय हे
उतरे और दखिने
सगरो पसराय हे
कईटको फांक नी दीसे
अकासे ढंपाय हे

आब धरती सरसी
ई बदरी बइरसी

गरजत हे ना ठनकत हे
घनगर गुन्गुवात हे
ई बदरी गंभीर बुझात हे
पोटराय हे चागुरदी से
धरती के हरसल हय

श्याम गुनी हुलसी
ई बदरी बइरसी

जोन खेत अरियाल हे
पइन नाला सोझिआल हे
बाँध पिंड बरिआर आउर
रोके के झोंकेक तइआर हय

तहां पानी छलकी
ई बदरी बइरसी

सुरु सीरी सीरी समसी
ई बदरी बइरसी


नी मानी ई बदरी
कुछ नी राखी अपन ठीन
सब के उझईल देई
'कृष्णं बन्दे जगद्गुरुम्'
करिया घनश्याम हय
आब केऊ नइं तरसी
ई बदरी बइरसी

अथाह समुन्दर कर
पानी तो नुन्छार हय
नून के छोइड के
गुण के उठाय के
भइर के ह्रदय में
चइल देहे बांटक लेगिन
नेवईर नेवइर , झुइक झुइक
सउब के बइरसाय देवी
तरसल मनके
सरसाय देवी
पइनगर आउर गुनगर हय
उदार हय , फलदार हय
ई नेवरी आउर लहसी
ई बदरी बइरसी

[छन - दू -छन: पृष्ठ संक्या 35 ] 

चल रे टमटम


चल रे टमटम 

साइठ बछर लंबा डहर 
कय कोस
नी जानोंन 
जानोन 
साइठ बछर लम्बा डहर 


दू बछर कर छऊआ 
बाप हर बिगे खोजे 
मांय कर अंचरा में 
का करो मांय 

मांग कर लाल बिछरत हे 
कोइख कर लाल पिछरत हे 

झेन्झरो अंचरा मांय कर 
सेकरे छाईह तर 
रउद अंधड़ 
बरखा झईर 
किटी किटी पाला 

बीत गेलक कोनो रंग 
सतरह गो जेठ 
सतरह गो हथिया 
ओतने पूस 
कान्हो हेराल रहे फागुन 
जोताय गेलक टमटम में 
नावां बछेड़ा 
कतना सवार 
कतना असबाब 
देहाती संडक 
गाडी कर रोबाब 
जवानी कर शान 
चाइल 
करे लाग्लक गान 
चल रे टमटम 
चल चल चल 

धइन देह आइज ले 
राखले तो मान 
एहे रंग संग देह 
नझो जात प्राण 

ले पार तो लगाम फेइर 
काइल होत  बिहान
ख़ुशी मने कईर पार  तो 
फेइर प्रयाण गान 

चल रे टमटम 
चल चल चल 
 
  [अगम बेस: page no. 36 . नागपुरी काव्य संग्रह] 

परकाला


कईसन  सुन्दर रहे
हाथ में परकाला 
चेहरा के संगे संग 
लील अकास 
हरियर धरती 
सघन बन 
झरना नदी 
खान खदान 
फैक्ट्री मनक चिमनी मन 
रीझे रीझे हूलकत रहयं 
कतई कतई बात कान में
 कहत रहयं
लोभावान 
सोहावन 
मनभावन 

***

का रंग गिर गेलक 
कईसन दरईक गेलक 
मुंहक छवी छितिछान 
संगे धरती आसमान 
छाकछुन भे गेलक 
भेन्सुवावान 
डरडरावन 
मनतोरन

[चोरेया , 2005 पृष्ठ ३२ अगम बेस ]   

Wednesday, May 15, 2013

धनेन्द्र प्रवाही -परिचय

मेरा परिचय 
धनेन्द्र  मिश्र /धनेन्द्र प्रवाही

जन्म- 3  जनवरी 19 4 4  को रांची जिला के तत्कालीन मांडर अब चान्हो थाना अंतर्गत ग्राम चोरेया  में।

माता-पिता - स्व . सावित्री देवी एवं स्व . भवानी शंकर मिश्र


शिक्षा -  प्रारंभिक शिक्षा -गाँव में /रातू एवं daltonganj में
             B.A. English, GLA Colllege Daltonganj, Palamau
             M.A. English, Ignou



लेखन- नागपुरी एवं हिंदी साहित्य के क्षेत्र में झारखंडी रचनाकार धनेन्द्र प्रवाही एक सुपरिचित नाम है।स्वास्थ्य विभाग से अवकाश प्राप्त प्रवाही का अपनी मातृभाषा नागपुरी , जो झारखंड की देशज भाषा है , से विशेष अनुराग है और अपने लेखन से आपने सभी विधाओं  में नागपुरी साहित्य को समृद्ध किया है। नागपुरी एवं हिंदी दोनों ही भाषाओं   में क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर  की पत्र -पत्रिकाओं में आपकी कहानी,कविता,साक्षात्कार एवं आलेख प्रकाशित हैं।  आपने देसी-विदेशी कालजयी रचनाओं और कृतियों का अनुवाद नागपुरी में एक मौलिक सृजनधर्मी की तरह किया है। नागपुरी साहित्य की अभिवृद्धि के लिए अब तक आप कई सम्मानों से अलंकृत किये जा चुके हैं जिनमे झारखंड रत्न उल्लेखनीय है।

नागपुरी में अब तक आपके चार  कविता संग्रह प्रकाशित हैं-
छन दू छन 
लोर
अगम बेस 
सामपियारी 

शीघ्र प्रकाश्य पुस्तकें  हैं-
पाती
कैमरा और कुछ लैंडस्केप
आबा 
लघुकथा संग्रह   



संपर्क  - ग्राम +पत्रालय -चोरेया , रांची -835214

Telephone- 0651-2278007, 9304407017

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Blog कुछ क्षण सृजन के 

गद्यकोश पर मेरी रचनाएँ-गद्यकोश/धनेंद्र प्रवाही

Tuesday, May 14, 2013

ग़ज़ल




पछिमे से का आलक हावा 
घरे आब बाज़ार भे गेलक।

मोल -तोल  हय डेग -डेग  में 
रिसता कार-बार भे गेलक।

दारु किडनैप लंगापन तो 
युग कर संसकार भे गेलक।


बुढ़वा घर कर होल संतरी 
छौंड़ा तो फरार भे गेलक।

आइग लागलक का बन में 
चन्दन तक अंगार भे गेलक।

              [अगम बेस: page no. 65. नागपुरी काव्य संग्रह] 

कहाँ हय मिरत !!!

कहाँ हय मिरत !!!




ई मउराल फूल!
मोइर गेलक का?
एहे तो खिलल रहे
रीझे- रीझे हावा संगे
झुमत रहे डाइर में
एहे तो बांटत रहे
दसो दिसा में
रूप -रंग -गंध कर सन्देश
आब जीउ छोइड देलक का ?
से लेगिन झरतहे !


इकरे जइर  तरे
झरल फुलकर  ओदा माइंद
फुनगी तक बुदा में
अमरित रस भरत हे
नावां कलि के आइंख ओगल
गते गते उघरत हे !

हेठे जीयत  माइंद  गुम-सुम
उपरे मह- मह फूल
तरे -उपरे
उपरे -तरे
जिनगी कर रसवंती
धारा अटूट
भीतरे -भीतर
कले -कल
लुक्ले-लुकल बहत हे!

माइंद में जीउ रस
खिलल फूल में जिनगी
कहाँ केजन मिरतू ह्य फूल में कि माइंद  में
कहूँ तो नइ दिसत हे !!


 [अगम बेस: page no. 35. नागपुरी काव्य संग्रह. nagpuri translation of his own Hindi poem 'फूल और खाद '] 

Monday, May 13, 2013

फूल मूल कर बात






से दिन कहे लागलक फूल जइर से 
'खाद में गड़ाल  हिस कोन तप कईर के ?'
धरती से जइर हँसलक , 'ना कर  ताव '
फिन तो हिंये आबे अइत ना अगराव।

काँइप उठलक डर  के मारे फूल  थर थर 
झइर गेलयं तखने कतइ पाँख झर झर 
छाती लगाय कहलक जइर ठिनक भुइयाँ 
'रूप -रस -गंध  के हय खान एदे हिंयां।।

 [अगम बेस: page no. 68. नागपुरी काव्य संग्रह] 

Thursday, April 4, 2013

आइग ,आइग, आइग

आइग ,आइग, आइग ....
जंगल कर आइग।


भागत हयं मनुख
जीव, जंतु जानवर
पोड़थे बन हरियर
अचरज आउर डर
त्राहिमाम , आइग .....

********

ॐ अग्निमीले .......अग्निदुतं ....
अग्नये नम: ......'वेद
पूजा ...जइग .... होम ..

.....आइग माने प्राण
भगवान्
सुरुज नारायण
इंजोर आउर गरमई
जिनगी माने आइग।।

********

जंगल कर आइग
समुन्दर कर आइग
पेट भीतर आइग
मुड़सिरवे तारे आइग ....

*********

नाना बरन रूप कर
सिरजन में आइग

आइगे से तरवाइर
बन्दूक
रायफल
मोटर गाडी
पानी जहाज
उड़न जहाज
बम चाहे अणु बम
मुट्ठाय में आइग।

*********

मनुख कर मन में आइग
बचन में आइग
करम में आइग।

दहेज़ खातिर बियउतही के
जीते पोड़ावेक लेगिन
माती तेल पिटरोल
धरावेक लेगिन आइग।

*********

कासमीर कर फुल-पतइ
गाछ-विरिछ आउर सुंदइर
जनी -मरद, धरम -ईमान
गीता ,ज्ञान, आउर कोरान
पोड़ावेक ले ,जरावेक ले
खउराहा आइग।

६ दिसेम्बर बेगाड़ेक लेगिन आइग
११ सितम्बर बोलावेक लेगिन आइग
११ सितम्बर पहुंचावेक लेगिन आइग
तेकर बदला चूकाहोंक लेगिन आइग
गोधरा कर खेला खेलुवावेक लेगिन आइग
अछरधाम मंदिर उड़ावेक लेगिन आइग

इ तो मनुख कर दुश्मन हय आइग?

************

पुरुब-पछिम-उत्तर -दखिन
तरे-उपरे आइग

मनुख जात कर काया में
करेजा में आइग

धधकतहे आठो पहर
घिरनाकर आईग ....

लप लप लपकपहे
बदला कर आइग

जीते पोड़ाय वाला आइग।

**********

नरक कर आइग
दोजख कर आइग

बारहों  सुरुज कर आइग
क़यामत कर आइग

करनी कर हिसाब
और निसाफ  होई एक दिन
गुनाह कर सजाई खातिर
आउर चाहि आइग

ई भयानक आइग।

**********

इरखा ,डाह ,अपसवारथ
भेद- भाव सब अकारथ
पुरुब- पछिम,  उंच- नीच
गोर-करिया , कलह- कीच
कुसासन ,भ्रष्टाचार
उग्रवाद अत्याचार
आतंक कर होली
जलावेक लेगिन आइग

मसाल जोइत आइग।

**********

मंदिर में आरती
महजिद में दिया
गुरुद्वारे जगमग जोती
धुप-दीप
दिया-बाती
चागुरदी इंजोर खातिर
संझा -बाती करेक लेगिन
मधुर जोइत आइग

धइन धइन आइग।।।।।।

********************
******************

[छन - दू -छन: पृष्ठ संक्या ३७ ]



कवर पेज :अगम बेस, नागपुरी काव्य संग्रह


बसंत- बिहान

बसंत- बिहान

ऋतू बसंत में
डाइरह- डाइरह कर
नावां-नावां
कोमल- कोमल
पात-पात कर
चिकनइ ऊपर
पियल नियर
पिछरत -पिछरत
सम्हरत- सम्हरत
सुरुज किरिन
पोंहचल उपवन में
कहे गुलाब में
'संगी रे '
उठ, होलउ बिहान।

[छन-दू-छन: पृष्ठ संख्या ५२ , नागपुरी काव्य संग्रह ]

बोध




तोर सपना सच ना होलक।
उ सपने रहे
से आइन्ख से रहे बड़
टूटबे  करतलक
टुईट  गेलक.

ना बह लोर
तोयं आपन  घर के ना छोड़
बाहरे हेराय जाबे
बाला अगम तातल हय
गरीब कर जिनगी तइर
छान के छनइक जाबे

एक तो आँख अपने सुकुवार
सेकर देखल सपना
आउरो सुकुवार
उकरो ले सुकुवार
आँइखक लोर

सुन,
दरइक गेलक सपना
तो ना ढरक
ना बरिस
तोंय आँइखे में रह
तोके
और कहाँ मिली  ठौर

तोर लेगिन गीता कर उपदेश
सुख-दुःख लाभ -हाइन के
बरोबइर बुइझ-जाईन के
ज्ञानी होय के रह

नइ  मिललक सुख
नइ हांसले
नइ गाले
दुःख तो पाले नि पूरा.
इकर से नइ हारबे
इकर से नइ हेराबे
तो स्थितप्रज्ञ होय जाबे
अरे भाइ
आधा तो अधे सही.

 
[अगम बेस: page no. 28. नागपुरी काव्य संग्रह] 

Tuesday, April 2, 2013

कवर पेज ...लोर -नागपुरी महाकाव्य


कवर पेज ...लोर -नागपुरी महाकाव्य ....नारी विमर्श पर नागपुरी भाषा में पहली रचना

कवर पेज ---छन दू छन

कवर पेज ---छन दू छन ...नागपुरी काव्य संग्रह

cover page of सामपियारी






























the cover page of my recently published book....सामपियारी 

Monday, March 11, 2013

असरा तो हय

असरा तो हय 

जिनगी भेलक महा कठिन
डहर  बहुत कठिन है तेउ
मंजिल कर असरा तो हय!

मन मरू देशक मृग होलक
मरीचिका हय छलजल हय
सुखल हय कंठ ओठ सब
तरसत जिउ तरासल हय

हय तातल तवा गोड़तर
कहीं नीर कर पातर कुन
धरा कर असरा तो हय!

गरज घुमड़ छने छने हय
ठनका संगे लवका हय
संका हय बहेक-दहेक
घोर विपदा कर अवधा हय

नदी में हय बाढ़ आवल
दह भंवर बेगो हय तेउ
डोंगा कर असरा तो हय!

राइत हय पाला छेछत
ठिठुरत जीउ जहान हय
रोका पोरा तर  लुकाल
अनदाता कर प्राण हय

मुर्गा बोलत उठिहें सब
मन भर तापिहें आइग
पसंगी कर असरा तो हय !

दिल में डबकत हय उनकर
अजब खिसाल समुन्दर अब
धूसर हय  मनकर आकाश
छायक उठी बवंडर अब

जिनगीक चिनगी हय राखतर
फूस-फूस,भुस-भुस , धुंगा हय
ज्वाला कर असरा तो हय!
   

मने 'धन 'बरंडो उठाय

मने 'धन 'बरंडो उठाय 

सब दने रायं रोपो , मारो लूटो झाँपो तोपों
कहों एकांत नइ भेंटाय तो  अइसन में
                           का पूजा पाठ करल जाय।।
हरी भजे सब खने , चल मन बन दने
गाँव घरे कलह बलाय तो  अइसन में
                           का पूजा पाठ करल जाय।।
सुपट एकांत जहाँ ,मन में अंदोर तहां
नाना काम संग्राम कराय तो  अइसन में
                           का पूजा पाठ करल जाय।।
बाहरे विरोध कहीं  ,भीतरे संतोष नहीं
मने 'धन 'बरंडो उठाय  तो अइसन में
                           का पूजा पाठ करल जाय।।

चित चोरी गुपुते सोहाय

चित चोरी गुपुते सोहाय 

नहीं करू छेड़ छाड़ सुनु छैला नन्दलाल
हम्हों जे देबैं गरिआय तलेना कह्बयं ,
                                                 गोपीन के बोलेहों नई आय।।
गगरी के देलें फोरी फारलेन अनारी सारी
नींदा करबेन घरे जाय तले ना कहबयं
                                         गोपीन के बोलेहों नई आय।।
घरे दही चोरी करैं घाटे बले हिया हरयं
चित चोरी गुपुते सोहाय तले ना कहबयं
                                         गोपीन के बोलेहों नई आय।।
लेहु छुपे छुपे 'धन' तन मन सजीवन
डावं डावं होवे नहीं हाय तले ना कहबयं
                                         गोपीन के बोलेहों नई आय।।

माँ

माँ 


क्रुद्ध भीड़ ने अनारो को खीच कर घर से बाहर निकाला। गोद से गिरकर उसकी नन्ही बेटी तड़पती रही। बच्ची के लिए किओत्ना गिड़गिड़ायी। चीखी चिल्लाई। पर उग्र लोगों ने उसकी एक ना सुनी।पंचायत ने एकमत से उसे डायन ठहरा दिया था।कहा गया था कि -"गुन-बान सिखने के लिए वह अपने जवान मरद को खा गयी।फिर हरी मालिक के बेटे को चबा गयी। डायन होने का इससे तगड़ा और क्या सबूत होता कि इधर हरी का बेटा मरा उधर अनारो की अब- तब बेटी टुन्न-मून हो उठी।
  डायन के सिर के बाल खपच लिए गए। उसे निर्वस्त्र कर गाँव में घुमाया गया।
अँधा धुंध मार से गिर पड़ी तो मृत समझकर पड़ी छोड़ दिया गया। उसका दोष?
वह एक सलोनी युवती थी। गरीब थी। बेसहारा थी। बेसहारा मजदूरनी हो कर भी उसने एक दबंग गैर मरद को इनकार कर दिया था। बस यही!
कौन था वह गैर मर्द ?
हरी की पत्नी जहान्वी जान कर भी मजबूरन चुप थी। कितने पत्थर पूज कर जहान्वी ने एक बीमार सा बेटा पाया था।वह भी बाप के पाप तले दफ़न हो गया।हरी को चेत कहाँ?किस बेहयाई से उस  लोलुप ने निर्दोष अनारो को कुचक्र में फंसाया!उसकी नन्ही सी बेटी पर भी तरस ना खायी।
झोपडी में बच्ची के रोने की आवाज़ कमजोर पड़ती जा रही थी।
पुत्र शोक में डूबी जहान्वी का माँ का दिल शिशु के क्रंदन से फटा जाता था- सहा ना गया।हवेली की मर्यादा तोड़ दौड़ कर उसने अनारो की मरणासन्न बेटी को उठा लिया।
दूध भरे स्तन से लगते ही मानो बच्ची के प्राण लौट आये।

इधर अधमरी पड़ी अनारो को कुछ होश हुआ। वह रेंगती घिसटती अपने खपरैल तक आ गयी।
सविस्मय देखा, जहान्वी उसके चौखट पर बैठ कर उसकी बच्ची को अपनी दूध पिला रही है।अपने कलेजे के टुकड़े को एक 'माँ' की गोद में देखकर उसकी बुझती आँखों में संतोष एवं आशा की रेखाएं कौंध गयी।
उठने की कोशिश की, लेकिन देअर्द से कराह कर अनारो वहीँ ढेर हो गयी।

(पुनर्नवा , दैनिक जागरण ,15 June 2007 को प्रकाशित )

भारमुक्त

भारमुक्त 


एक रोग ग्रस्त वृद्ध ने अपने पुत्र से कहा -
"बेटा! मैं अब कुछ ही दिनों का मेहमान हूँ।गृहस्थी में और तो सब प्रायः ठीक ही है, लेकिन न जाने क्यों अंतिम समय में मेरा मन घर की बूढी गाय पर लगा हुआ है।कई पीढ़ियों से इसने इस परिवार की सेवा की है।इसी की माँ के  दूध से तुम पले हो।और क्या ,इसने तुम्हारे भी बच्चो को अपना दूध पिला कर पाला है।यह बेचारी अब थक गयी है।वृद्धावस्था में इसे जिस तिस के हाथों बेच मत देना या यूँ ही त्याग नहीं देना।तुमसे कुछ दिनों की सेवा सुश्रूषा पाने का इसका भी हक़ बनता है। गऊ तो ऐसे भी माँ के समान होती है। इस गाय का तो खैर कहना ही क्या?"
अपनी बात समाप्त कर उसने एक आस भरी दृष्टि पुत्र के मुख पर डाली।उसके चेहरे को भावशून्य सा देखकर उसने समझ लिया की बेटे ने उसके 'भाषण' की अनसुनी कर दी। असहाय सा वह निकट ही कड़ी अपनी वृद्ध पत्नी पर नज़र टिकाकर मौन हो गया।बूढी गाय के बहाने कही गयी अपने  पति की बात का अभिप्राय वही नहीं उनका बेटा भी भली भाँती समझ रहा था। तथापि बेटे के चेहरे पर अंकित सम्वेदंशुन्यता को पढ़कर अपने लाचार भविष्य के कष्टों का अनुमान कर के वह भीतर से कांप गयी।
जाड़ों के आते ही स्वास रोग ने जोड़ पकड़ा।जर्जर ह्रदय ने असहयोग प्रारंभ कर दिया।कुछ ही दिनों में उस वृद्ध व्यक्ति ने इस धरा धाम से सदा के लिए विदाई ले ली।कडाके की ठंढ का आघात नहीं सह सकने के कारण जल्दी ही उस दिवंगत वृद्ध की बूढी गाय भी उसका अनुगमन कर गोलोक को सिधार गयी।भाग्य से एक साथ ही दो बलाएँ ताल गयी हों जैसे, पुत्र ने राहत की सांस ली। अब बूढी माँ का क्या होगा?
पुत्र पुत्रवधू ने विमर्श किया। पखवारा भी नहीं गुजर पाया कि वृद्धाश्रम की गाडी दरवाजे आन् लगी।
अभ्यागत बुढापा उस पर लड़ कर विदा हो गया।
दम्पति भारमुक्त हो गया।

(पुनर्नवा,दैनिक जागरण 6 April 2007 को प्रकाशित )

उदारता

उदारता 


अवकाश प्राप्त उच्चाधिकारी की फेयरवेल पार्टी में अच्छा-खासा जमावड़ा था।पत्रकारों की भीड़ थी।साहब की खूब तारीफ हो रही थी-"ये बड़े ही लोकप्रिय पदाधिकारी रहे।जनता एवं मातहत दोनों के चहेते।इनके कार्यकाल में कोई भी काम लंबित नहीं रहा करता था।ऐसे ही समर्पित एवं निष्ठावान पदाधिकारी देश के लिए जरुरी हैं .....इत्यादि, इत्यादि…. ."
अवकाश प्राप्ति के कुछ ही दिनों बाद इन्हें दो वर्षों के लिए अनुबंध पर सेवा में रख लिया गया। सरकार ने लोक महत्व के कई कार्य इन्हें सौंप दिए।दौड़ में और कई लोग थे, लेकिन इन्होने सबों को पछाड़ कर यह महत्वपूर्ण पद प्राप्त कर लिया।ये रहे ही इतने प्रभावशाली!
पत्रकारों के प्रश्न के उत्तर में कहा-
"देखिये, वैसे तो मैंने अपना सारा कार्यकाल जनता की सेवा में ही बिताया है,किन्तु अनुबंध की इस छोटी सी अवधी में मेरा विचार देश प्रदेश की सेवा और अधि उदारता पूर्वक करने का है। लोक सेवा हेतु प्राप्त इस अंतिम अवसर में मैं लोगों को निस्वार्थ भाव से यथा शक्ति ज्यादा राहत देना चाहूँगा।"

अखबारों में रंगीन तस्वीरें छपीं। गुणानुवाद छपे।शीघ्र ही इनकी ख्याति पहले से भी अधिक फ़ैल गयी।लोग बाग़ में खुले आम बातें होती-
"ऒफ़िसर हो तो ऐसा!नया पद सम्हालते ही इन्होने कमीशन की रकम में बाज़ार रेट से 2 5% की कमी कर दी।इस महंगाई में इतनी राहत कम है?"
नीचे  से ऊपर तक सभी इनसे प्रसन्न हैं।
साहब की उदारता चर्चा का विषय है।

(पुनर्नवा, दैनिक जागरण ,29 June 2007 में प्रकाशित  ) 

सदुपयोग

सदुपयोग 


मोहल्ले में प्रीतिभोज का आयोजन था।बहुत से लोग आ रहे थे। भोजन कर रहे थे , जा रहे थे।नौकर चाकर मेहमानों की सेवा में लगे थे।वे जूठी पतलो को समेटकर बहार गली के कोने में फेंकते जाते।वहां ढेर सारे कुत्ते जूठन पर झपट पड़ते।चिना झपटी में परस्पर हिंसक आक्रमण करते हाँव- हाँव, झाँव -झाँव लड़ रहे थे।नोच खसोट में कितने ही लहुलुहान भी हो गए थे।वहीँ पर आड़े हर कुछ कोढ़ी भिखमंगे पत्तलों के अधखाये अन्खाये पकवान और मिठाइयों को फुर्ती से लपक लेते।कभी कभी किसी कुत्ते से अड़ा-अड़ी भी हो जाती।लेकिन भूखे आदमियों की गुस्सा भरी आक्रामक नज़रों और डांट के डर से कुत्ते ही दांत निपोर कर दम दबा लेते।

मेहमानों का स्वागत करते मेजबान की नज़र इधर पड़ी तो वे आग बबूला होकर नौकरों पर बरस पड़े-
"जूठन इकठ्ठा करने के लिए अन्दर इतना बड़ा पीपा रखा हुआ है, फिर भी तुम लोगों ने यहाँ कुत्तों, कोढियों, और भिखमंगों को भोज दे रखा है। वीरानी दौलत पर दाता दानी बनकर पुन्य कमा रहे हो? हराम का माल समझ रखा है ?"
भद्दी गालीयां  देकर उसने अपनी बात आगे बढाई -
"जाओ!पत्तल पाइप में जमा करो। सब मेरे फार्म हाउस के कम्पोस्ट पिट में जायेंगी। कमबख्त, अरे चीज़ों का सदुपयोग जानते तो यूँ ही मजदूरी कर के मरते ही क्यों तुमलोग?"
यह सुन कर निराश भिखारी धीरे धीरे खिसकने लगे।
बेचारे कुत्ते कुछ समझ नहीं पाए। वे  पत्तलों की आस में खड़े रहे।

(पुनर्नवा, दैनिक जागरण ,11 May 2007  में प्रकाशित )

सिमटते कछार

सिमटते कछार 

महानगर के एक विद्यालय में शिक्षक क्षात्रों को इतिहास कथा सूना रहे थे -
"इलाके में एक नदी बहा करती थी।
 चौड़ी और गहरी।
बलखाती इठलाती इतराती ......
तटों पर लहलहाती हरियाली।
खेतों में बालियों के भर से झुकी फसलें।
हलकी हवा के झोंकों से झूमतीं।
जीवन सर्वत्र सर्वथा आनंदमय हुआ करता था।

कालांतर में नदी को कभी कभी दूर किनारों से कुछ मद्धिम स्वर सुनाई पड़ने लगे-
                                       "प्यारी बहना!
एक से इक्कीस होती हमारी संतान को और भवन चाहिए।
क्या तुम अपने विस्तृत कछारों को थोडा समेत लोगी?"
इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर नदी की धारा एक क्षण के लिए ठिठक सी जाती। किसी दुर्निवार अनहोनी की आशंका से भरी उसकी आँखों में एक चुभता सा प्रश्न कौंध जाता-
                                          "जल नहीं चाहिए?"
                                         "जीवन नहीं चाहिए तुम्हारी सन्तति को?"
अस्तु, धीरे धीरे नदी सिकुड़ती चली गयी।
कछार अनमने से सिमटते, सटते चले गए।
धारा कृशकाय होती चली गयी।
निर्मल नीर की जगह उसमे बदबूदार पानी बज्बजाने लगा।
हरियाली मुरझाती गयी।
फसलें साल दर साल रूठती चली गयी।
फिर तो बीजों ने अन्कुरना तक छोड़ दिया।
पोलिथिन और कचरों के कई पहाड़ नदी के किनारे कुकुरमुत्तों की तरह  उग आये।
कंक्रीट के कई बहुमंजिले खिसकते उभरते नदी के दुर्बल कन्धों पर निर्ममता पूर्वक चढ़ बैठे।
शहर पसरता गया।
क्षीण से क्षीणतर होती धारा एक नाला भर बाख गयी।

आज उसी नाले के किनारों पर जल के लिए युद्ध छिड़ा है।हाहाकार मचा है।प्यासी प्रजा राजमार्गों पर प्रदर्शन करती है।
वर्षाकाल में कभी दबी कुचली नदी का आक्रोश सैलाब बनकर फुट पड़ता है।
नगर खंड प्रलय में डूब सा जाता है।तट वासी जलाभाव और बाढ़ के बीच नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं।

"जानते हो बच्चों!"-छात्रों की जिज्ञासा को चरम पर देखकर शिक्षक राज खोलते हैं।
"अपने इसी नगर के बीचों बीच कभी वह चौड़ी गहरी सदा-नीरा बहती थी  जिसके अमृत तुल्य जल से पूरी आबादी धन-धान्य से संपन्न सुखमय जीवन बिताया करती थी।"

(पुनर्नवा , दैनिक जागरण 30 November 2007 में प्रकाशित ) 


कहाँ मिलेगी माँ ?

कहाँ मिलेगी माँ ?

बहु अपने कमरे में दर्द और बुखार से कराह रही थी।तीसरी बार उसका भ्रूण वध हुआ था।हत्यारिन दाई ऐसी जालिम कि खुद औरत हो कर भी औरतों के जी को कभी जी नहीं समझती थी।जैसे भी हो, नोच चोथ  कर भी मादा भ्रूण को गर्भ से बहार निकाल फेंकना ही उसका पेशा था।
इस बार सास और पति के इशारे पर जान बुझ कर असुरक्षित तरीका अपनाया गया था। ताकि बहु इन्फेक्शन या किसी जानलेवा बिमारी की चपेट में आ कर चल बसे और दूसरी पतोहू लाने का रास्ता  साफ़ हो जाए।
अब इसे कन्या भ्रूण ह्त्या का पुन्य फल कहें या और कुछ ! दुसरे ही दिन घर की गाभिन गाय ने पहली ही ब्यान में बछिया दे दी। "......पसु को बेटी " और क्या चाहिए?
सभी खुश थे।
परंपरा अनुसार गाय के खुर धोये गए।माथे पर घी सिंदूर टिक कर गले में फुल माला पहनाई गयी।
सासु माँ गाय के आगे हाथ जोड़ रही थी-
"हमारे खानदान में भी एक गोपाल दे दो माता। हमारे एकलौते बेटे को भी बेटा दे दो माँ।"
इस तरह गिड़गिडाती  हुई वह नवजात बछिया को पुचकारने के लिए जैसे ही झुकने लगी कि गाय भड़क गयी।
उसके नुकीले सिंग  से उन्हें चेहरे पर जो चोट लगी उससे लहू बहने लगा।
निकट ही खड़े   उनके आज्ञाकारी सपूत खुद को बचाने में ऐसे  गिरे कि कलाइयों से निचे उनके दोनों हाथ झूल गए।
माँ बेटा जमीन पर गिरकर भय और दर्द से छटपटाने और कराहने लगे।
दुर्बलतन बहु खिड़की के पतले परदे के पीछे से सब कुछ देख सुन रही थी।
अपनी बेटियों के क्रूर हत्यारों को तड़पते देखकर उसका चेहरा कठोर हो गया।
गाय अभी गुस्से में उन दोनों पर फों फों कर रही थी।उसकी ओर देखती बहु खुद को धिक्कार उठी -
"तू तो इस मूक पशु से भी गयी बीती है री औरत!अपनी कोख को दरिंदो से नुचवाने के लिए खुद बीछ जाती है।
तू माँ बनेगी  .......बेटी की माँ   .........माँ  .......!!!

(साहित्य , दैनिक भास्कर ,25 जुलाई 2012)

कसूर किसका

कसूर किसका 


यह कहानी एक दम्पति की है, जो सिर्फ बेटे चाहता था।बेटी एक भी नहीं।केवल बेटा पाने के लिए उसने एक एक कर तीन कन्याओं को धरती पर आने से पहले ही लापता करा दिया।दोनों प्राणी अपनी इस विजय पर अति प्रसन्न रहा करते थे, मगर उनकी प्रसन्नता बहुत दिनों तक टिक न सकी।तीसरी बार की छेड़ छाड महँगी पड़  गयी।
         इस बार पत्नी का स्वास्थ्य बिगड़ा,सो बिगड़ता ही चला गया।आखिरी घड़ियों में तेज़ बुखार में पड़ी वह प्रलाप करती -
"मैंने लक्ष्मी की जान ले ली। दुर्गा को मार डाला। सरस्वती की ह्त्या कर दी। मैं हत्यारिन हूँ।पिसाचिन हूँ।मुझे मार डालो।"
पत्नी की मृत्यु के बाद पतीजी नई संगिनी की बात जोहते रह गए। कोई अपनी बेटी उन्हें देने के लिए आगे ना आया।कारण - बेटे की चाहत में किये गए उनके महान कर्म (!!) की जानकारी धीरे धीरे पुरे समाज को हो गयी थी।
कहते हैं अंतिम दिनों में पति महोदय भी पत्नी की तरह प्रलाप किया करते थे-
"सरस्वती! दुर्गा ! लक्ष्मी ! कहाँ हो तुम ?"
अक्सर वे अपनी तकलीफे यूँ सुनाया करते -
"डॉक्टर साहब!मुझे अपनी आँखों के आगे मासूम बच्चियां फांसी के फंदे पे झूलती दिखाई देती हैं।फूलों सी कोमल कन्या शिशुओं का तेज़ स्वर रह रह कर कानो में चुभता रहता है-
हमारा क्या कसूर था पापा?"


(पुनर्नवा ,दैनिक जागरण 22 फ़रवरी 2 008)

और कितना सुख

और कितना सुख  

वृद्धाश्रम के सत्संग में आज परमभक्त पुत्र श्रवण कुमार की कथा चल रही थी।
श्रवण के अंधे माता पिता के प्राण त्याग का करुण प्रसंग था।
दुखांत कथा के मार्मिक स्पर्श ने वृद्धों की सुसुप्त पीड़ा को कुरेद कर जगा दिया।उनमे से अधिसंख्य वृद्धों के मन में संतान द्वारा की गयी उपेक्षा का दंश फिर तीव्र हो उठा।
भजन किरतान के साथ सत्संग समाप्त हुआ।सभी आश्रम वासी विश्राम को चले गए।श्रवण श्रेस्ठ के माता पिता भी अपने कमरे में आ कर लेट गए।दोनों ही बहुत देर तक चुप चाप कहीं खोये रहे।कमरे में सन्नाटा भरा रहा।वृद्धा ने ही मौन तोडा-
"तूने कथा तो सुनी?"
"सुनी तो !"
"हमारे प्राण कैसे निकलेंगे?"
"क्यों निकलेंगे हमारे प्राण?"
"अपने श्रवण  को कुछ हुआ थोड़े ही न है ?कितना बड़ा साहब तो हो गया है बेटा हमारा। गाडी बंगला , पढ़ी लिखी बीबी, खिलखिलाते बच्चे। उसे कमी किस बात की है?इधर हमें भी क्या दुःख है इस आश्रम में ?"
"तभी तो पूछती हूँ, मर जाने के लिए और कितना सुख चाहिए हमें ?"
कमरे में फिर मौन भर गया।

(कादम्बिनी, जनवरी 2008 में प्रकाशित)

कीर्तियस्य स जीवति

कीर्तियस्य स जीवति 

एक वृद्ध सज्जन मृत्यु शय्या पर पड़े थे। वे निसंतान थे।स्वजन परिजन से घिरे उन महाशय के मुख मंडल  में वह विकलता दिखाई नहीं पड़ती थी जो सामान्यतः आसन्न-मृत्यु लोगों में होती है।वे ऐसे शांत थे मानो अपने रोम रोम से मृत्यु की अकथ्य-असह्य पीड़ा को मधुकण की तरह आत्मसात कर रहे हों।विश्रामावास्था में किसी  श्रांत  व्यक्ति की आँखों में जैसे अनायास ही निशब्द निद्रा शनैः शनैः स्वतः आती है,कुछ इसी सहजता से आज चिरनिद्रा उनके नेत्रों की ओर चली आ रही थी।उन्हें इस प्रकार अनुद्विग्न और निर्विकार देख कर सभी को विस्मय सा हो रहा था।

इस शांत सुधीर व्यक्ति ने अपने जीवन में गहन गंभीर अद्ध्ययन  किया था। अनेक सत्कर्मो से समाज की श्रद्धा अर्जित की थी।सम्मानित हुए थे।लोक सेवा के अपने कर्मो का संतोष उनके मुखारविंद पर प्रातःकालीन शितविन्दुओं की तरह झलक रहा था।

सिरहाने खड़े एक ईर्ष्यालु प्रतिवेशी से उस पुण्यात्मा का भव्य मरण-वरण सहन नहीं हुआ।उनके अंतिम क्षणों में उन्हें मानसिक क्लेश पहुंचाने के दुष्ट विचार से वह भर उठा।महात्मा के सक्रीय जीवन काल में उनके तेज़ के आगे वह कभी टिक नहीं पाता  था।आज उनके मुख में तुलसी गंगाजल देते हुए कृत्रिम सहानुभूति के स्वर में उसने पढ़ा-
"मरणंतु जाह्नवी तीरे अथवा पुत्र सन्निधौ ......."
उसे लगा की आज उसकी कुटिलता ने  उस पुरुष पर्वत राज के मर्म को क्रूरता पूर्वक बेधने में निःसंदेह सफलता प्राप्त कर ली।किन्तु .....

जैसे उस वृद्ध पुरुष की तंद्रा अकस्मात् भंग हो गयी हो, मृत्यु ने दो पल के लिए विराम सा ले लिया हो , उसके शांत मुख से ये दृढ शब्द फुट पड़े -
"कीर्तियस्य स जीवति"
और अगले ही पल पलकें सदा के लिए बंद हो गयी।
इस सुप्ति सुगंध से वातावरण महमहा उठा।
मरण जीत कर भी हार गया।
इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से हतप्रभ उस द्वेषी प्रतिवेशी के जल का चम्मच अन्यत्र जा गिरा और उसका सिर ग्लानिगर्त में गड़ गया।

(मग्बन्धु जुलाई -दिसंबर 2005 में प्रकाशित )

सरहदसेआगे

सरहद से आगे

युद्ध के दिन थे।मोर्चों पे लड़ाई चालू थी।
परस्पर सत्रु देश के दो घायल जवान पास पास पड़े मौत से जूझ रहे थे। उनके जिस्म का लगभग सारा  खून बह चुका था।  उनमे से एक दिलावर  प्यास से बेचैन हो उठा।
वह जैसे खुद से बोला -
"मेरा हलक सुखा जा रहा है।"
"पानी से भरी बोतल तो बाजू में पड़ी है।"  बहादुर ने जानकारी दे दी।
दिलावर  ने अपनी बाहों की ओर नज़र डाली।
बदनसीब हिलीं तक नहीं।
बहादुर ताड़ गया कि उसके दोनों हाथ झूल गए हैं। उसने लेटे ही लेटे ढक्कन खोल कर उसे पानी पिला दिया।
गला तर हुआ तो दिलावर की आवाज़ कुछ साफ़ हुई-
"अजीब आदमी है, इसे प्यास तक  नहीं लगाती।"
 "भूख बड़े जोरों की लगी है"....बहादुर ने 'प्यास' जैसे सुनी ही नहीं।
"दो कदम पर तो रसद की पेटी पड़ी है। उठा नहीं जाता क्या?" दिलावर की झिडकी में मिठास थी।
बहादुर ने एक नज़र अपने पावों  की ओर डाली,फिर निगाहें शुन्य में टिका दी। दिलावर ने तुरंत भांप लिया कि उसके पाँव उड़ चुके हैं। उसे खुद पर गुस्सा आ गया।
"नाहक ही डपट दिया इसे।"
वह आखिरी जोर लगा कर झटके से उठा। उसने अपने पैरों से ठेल कर पेटी बहादुर के करीब कर दी।
बहादुर ने रोटी निकाल कर एक टुकडा दिलावर के मुंह में डाला, फिर एक टुकडा अपने मुंह में रखा। पानी का एक घूंट उसकी बोतल से लिया। थोड़ा उसके मुंह में डाला।
सब कुछ अपने आप होता गया।चुप चाप।
उधर मोर्चे पे जंग जारी थी। जिंदगी के चीथड़े उड़ रहे थे।इधर यह निराली दिलदारी चल रही थी।
दो पल ही सही मौत को भी मोहलत देनी पड़ी।
इस अनूठे रिश्ते को उसने भी झुक कर सलाम किया।
जवानो के चेहरे की रौनक बढ़ गयी थी,जैसे बुझने से पहले लौ की रौशनी बढ़ जाती है।
बहादुर ने हाथ हिलाकर विदा मांगी।
दिलावर ने निगाहों से ही कहा-"अलविदा".
 

(मार्मिक कहानी विशेषांक, कादम्बिनी जून 2008 में प्रकाशित )

Monday, February 25, 2013

लघु कथा 

नागपुरी

नागपुरी कविता