Saturday, June 12, 2010

दूर कहाँ छुट गया

दूर कहाँ छुट गया
सपनों का गाँव !
अनचीन्हा-सा लगता
हर घर, हर ठाँव .

छूट  गई मौज कहाँ
सिमटे   सैलाब
अनचीते  ढूहों का
अज़हद   फैलाव

रेतों में कैद हुई
जीवन की नाव

बँसवारी  में नन्हे
घरबारी के घेरे
गुड़ियों की शादी पर
संबंधों के फेरे

देख सिहां  जाता था
बूढा  अलगाव

यादो  की बदली से
छन-छन  कर वो बातें
पूछ रही है अब मुझसे
उन रिश्तों के माने

सुनकर भी चुप साधे
खूंसट बिलगाव

शब्द अर्थ खोये से
बेमानी कोष
पूछ रहा हर चेहरा
किसका है दोष?

जले तवे-सा मरु है
जमे-जमे पांव
दूर कहाँ छुट गया
सपनों का गांव?



छोटानागपुर भूमि ,डाल्टनगंज,रांची,८/८,१९८१ में प्रकाशित


.

पर्यावरण गीत

एक मौसम मन का भी होता है मोहन!
मन का भी होता है पर्यावरण!
इस पट पर जो उभरा है
यह अट-पट सा रेखांकन
सच पूछो तो मन का ही
 है सारा चित्रांकन
तनिक तुम्ही सच बोलो तो
तुम्हारे या
उनके या
हमारे ही
किसी के भी मन ने
अब तक क्या
सचमूच मन से चाहा  है
  मन मधु हो
मुरली हो
चहुँ दिशी हो मधुवन!
सूखे होठ
सतृष्ण नयन
मन हिरन
मरीचिका का मोहजाल
हार गिरे हिरणों के शव
दे रहे दुर्गन्ध
आखिर
हम जा रहे किधर
कुछ भी तो सोचो मोहन!
मन मरुमृग
तन खोज रहा क्यों
रेतों में
हर पल
हर क्षण
वृन्दावन
बोलो मोहन!
मन का भी  होता है पर्यावरण
सुनो मोहन!
.........

कव्यगंगा,रांची एक्सप्रेस,१४ मई 2006 ko prakashit

Friday, June 11, 2010

कौन सा बंधन !

चाँद सारी  रात रोता है! क्यों ?
कोई नहीं जानता
फिर भी चांदनी से
अमृत बरसाता है , बांटता है.
निःशब्द रात्रि में तारे चुपचाप
अश्रुपात करते हैं,
बर्फ बन जाती है.
गिरिराज से गंगा बह निकलती है.
कलियाँ और पत्तियां रात भर
भींगती है
पर,प्रभात होते ही
मधुर हास,और हवा से,
सुबास लुटाती है
धरती के सुगापंखी
आँचल के झलमल-झल मोतियों
से चिटक कर किरणों की लहरें
लहराती हैं
साथ ही व्याकुल
सूरज अपनी सुसुम रेशमी
रुमाल से नेह-छोह   के भीगे गाल
सप-सप पोंछता है
सारे  संसार का रूप ताज़ा और मनोहर हो जाता है
और जीवन में सुरस
बिहान का गीत  भर जाता है
कहीं कोई बंधन दिखाई भी नहीं देता 
सब किस चीज़ से बंध जाते हैं
जड़ जंगम मात्र के ह्रदय 
प्राण एक कैसे हो जाते हैं!

कव्यगंगा,ranchi express ,११/१२/२००५ को प्रकाशित 

सुख-दुःख

दर्द कितना भी बड़ा हो
चाहे किसी का भी हो
बाँट लेने के लिए ही
किसी  को भेजा गया है
पूछता है कवि तुम्ही से
तुमने किसी का दर्द बांटा  है कभी?
.....
ख़ुशी कितनी भी बड़ी हो
आई कहीं से भी
बाँट देने के लिए ही
किसी से तुमको मिली है
पूछता है कवि तुमसे
तुमने किसी को ख़ुशी बांटी   है कभी?
...
मिली यह जिंदगी जो है
जितनी भी बड़ी हो
सुख-दुःख दोनों के लिए है
समभाव से सुख-दुःख को
पूछता है कवि तुम्हीं  से
तुमने अभी तक क्या  न बांटी  ज़िन्दगी?


कव्यगंगा,रांची एक्सप्रेस,४/०९/२००५ को प्रकाशित

ग़ज़ल

जो स्वप्न देखे थे बड़े हमने कभी
अब हकीकत देख कर सहमे खड़े हैं.
बंद,हड़तालें, प्रदर्शन,जाम,रैले
कल तलक थे जिस तरह अब भी अड़े हैं.
जिस शहर में कल मनी दीपावली थी
आज क्यों कर्फ्यू चिरागों  पर जड़े हैं?
नेतृत्व करते थे बगावत के कभी
इन्कलाबों के मुखालिफ वो खड़े हैं.
क्या हो गया इन वादियों को रामजी
इनके गगन पर तो धुएं के तह पड़े हैं
वो न्याय सामाजिक सरसता और अमन
चौमुहानो पर बने सब बुत खड़े हैं.


कव्यगंगा,रांची एक्सप्रेस,९/०१/२००५ को प्रकाशित

तुम्हारी मर्ज़ी!

सूरज रोज़ उगेगा
काट  कर अँधेरा
ज्योति,प्राण,उर्जा से भर देगा
वसुधा के अणु-अणु को
अब तुम अणुओं के बम बनाकर
रोज़ बनाओ नागासाकी
हिरोशिमा...
......तुम्हारी मर्ज़ी .
.....
मां वसुंधरा तुम्हे पोसेगी
अनंतकाल तक
जल,जीवन,धन,अन्नराशि  से
अब  तुम  इसकी  कोख  में  ही
ज़हर मिला दो
...तुम्हारी मर्ज़ी!
...
ये लता-पत्र-तरु,मौन-मित्र ये
प्राण दे रहे,त्राण दे रहे
अब तुम इनकी जड़े खोद कर
खाक बना दो
...तुम्हारी मर्ज़ी!
......
गंगा,नील,दोन,ह्वान्ग्वो
जीवन इसमें सदा प्रवाहित
भर-भर अंजुरी पान करो
या गरल बना कर
मरू में अपने प्राण तजो तुम
ज्यों हिरनामन
...तुम्हारी मर्ज़ी!
.......


कव्यगंगा,रांची एक्सप्रेस,५/१२/२००४ को प्रकाशित

अच्छा लगता है

कभी-कभी कुछ चीजें
बहुत ही अच्छी लगती हैं
जैसे -
किसी अनचीते   में दुबके
किन्ही भूली  बिसरी
सहज-सलोनी यादों के चूजे
मन के चिकने चबूतरे में
पहले-पहले बाहर  आते
आँखों में अचरज
सहमे-सहमे
फिसल-फिसल कर
सम्हल -सम्हल  जाते हैं....

जैसे, घर जाती
धुप सितम्बरी
और कास के उजले-उजले फूल
बरास्ते
खोयी-खोयी आँखों के
आसमान के कैनवास में
श्वेतोत्पल-दल से बादल से
उभर-उभर आते हैं
मानो  बीती बरखा के दिन के
विशाल मेघ-गज को
चुनौती देते
छोटे श्वेत  परेवे
-अच्छे लगते हैं!
.....
उनके संग हो जाना
मन पंछी का
निर्मल प्रपात- से
शुभ्र अभ्र के
बार-बार हो आर पार
उभ-चुभ होकर उड़ना
सराबोर कर लेना
भूली-भावन यादों को
ताज़ा-तरीन उपनामों से
-अच्छा लगता है!


कव्यगंगा ,रांची एक्सप्रेस (१९ जनवरी २००४,पेज ९) में प्रकाशित

Thursday, June 10, 2010

फूल और खाद

एक फूल के खाद होने
और खाद के पुनः फूल बन जाने की प्रक्रिया
बहुत जटिल है मित्र!
अस्तित्वहीन मृत्यु का आकल्पन
इसी जटिलता की कोख में जीता है!
.........................
फूल की तरह खाद भी जीवित है
प्राण दायीनी है.
जीवन उसमे किन्तु प्रच्छन्न है
आकर्षणहीन.
और फूल साक्षात् जीवन है
रूप-रस-संपन्न.
उसमे शैशव ,कैशोर्य और  यौवन  का
आह्लाद है
प्रत्यक्ष रुपाकर्षण और आमंत्रण है.
फूल में सृष्टि की संभावनाएं मूर्त हैं
..............................
अदृश्य है खाद की अमृत चेतना
प्रथम दृष्टया अकल्पनीय भी ..
किन्तु इस चेतना के उर्ध्व-गमन की
अंतिम परिणति है पुष्प की सुगंध.
............................
प्रसून की जरा भी विकर्षित करती है ...
और झर-झर झर  कर
खाद बनते है कुसुम जर्जर
पुनः रससिक्त होते हैं.
...................
अक्षय उत्स है जीवन-रस
जो बनाता है एक वृत
प्रवहमान  परिधि अविरल
प्रच्छन धार आविष्ट
शाश्वत.
...........
तल्लीन अंतर खाद का
बहिरंग गौण हो जाता है
कदाचित मलिन
विकर्षक और बदबूदार भी.
............
तो तुम कैसे विभेद करोगे मित्र
खाद और कलियों में
कीच और कमल में
मृत्यु की रिक्ति कहाँ मिलेगी तुम्हे?
..............
फूलों का झड जाना
उनका मर जाना तो नहीं है!
संघनन है प्राण का
सरूप उद्भव के लिए
एक सुखद सुषुप्ति है!
.................
जीवन का सातत्य
कहीं बाधित नहीं होता .
नहीं होता है खंडित .
मृत्यु नहीं है मित्र !
किसी क्षणांश में भी नहीं.
सतत है जीवन
केवल जीवन!
........

शाकद्वीपीय मग्बंधू त्रैमासिक पत्रिका,रांची ( अप्रैल-जून २००५) में prakasit

कतिपय कोंपलों के अर्थ

ये कुछ कोंपल जो हैं .
स्तंभों से खड़े
जराधीन पेड़ों पर भी
कहीं कहीं
साकांक्ष उग आईं .
ताम्र  वर्ण की कोंपलें .

ये अकिंचन नहीं
अतीतप्राय  की वर्तमान से
भावमयी अपेक्षाएं हैं.

कोई तो देखे
नीरस में विलास
प्रकट हो
सहृदय का उदगार
'नीरस तरुरिह विलसति पुरतः'
और कादंबरी कादंबरी हो जाये..
.
ये कतिपय कोंपलें
ये सुकोमल सूचनाएं हैं
की शुष्क भी तरु
उपेक्षनीय नहीं कोई
लोचन चाहिए. मन चाहिए,

गतायुप्राय  वृक्षों का
सुख जाना तो
सघन होते तरल तत्व का
ठोस हो जाना भर है.

सृष्टि-सेवा-कर्म चिर हो
इस निमित
सुखी समिधा बन जाना
या आकाश में खिलने के लिए
बारूद तक हो जाना भी है.

ये मंत्रसिक्त आहुतियों की
संजीवनी सुगंध
दिगंत में फैला दें
फुलझड़ियाँ बन फूलों की
नयनाभिराम  झड़ी लगा दें.

ये कतिपय कोंपलें
दृढ विस्वास भरे.
सत संकल्प सजे
रसग्राही उत्साही
कर्म कुशल  योगी युवजन के
सम्मुख लहरातीं
परीक्षाएं हैं.

जीवन संध्या की
युवा प्रभात से
स्नेहमयी अपेक्षाएं हैं.
ये कतिपय कोम्पलें ....



pushpanjali,choreya, ranchi
भास्कर मग्बंधू (जनवरी-जून २००६ संयुक्तांक) ,रांची में प्रकाशित