Tuesday, January 3, 2017

मृगमन









मरू के ये संबोधन
खुद ही दिलवाए थे मृगमन
अब काहे तरस रहे
मृग नयन बरस रहे
छलना है नीर नेह - छलना है।
तेरी है प्यास अगम
सांसो के छलने तक  चलना है।
तृषा व्यथा सहना है।

पौधे और पेड़ घने
दूर हैं खजूर खड़े
कांटे भी सघन छांव देते हैं।
फुल बड़े नाजुक दिल
थोड़ी भी धुप नहीं सहने को साथ कभी रहते हैं।
अपनी ही व्यथा कथा
कहते चुपचाप सदा
निरमोही, बेबस से  झरते हैं।
कांटे ही घाव फोड़
दर्द की मवाद बहा
टीस सभी तन मन की हरते हैं।
होते बदनाम मगर
सबके इलज़ाम सभी
चुप ही चुप  कांटे ही सहते हैं।
मृगमन!


छोटानागपुर भूमि ,डाल्टनगंज,रांची, १२ अप्रैल १९८३ में प्रकाशित 


बसेरा

MY SHORT STORY PUBLISHED ON DAINIK BHASKAR'S, DB STAR
13/11/2014


कुत्ते

दैनिक भास्कर में प्रकाशित 5/2/2015


नन्ही की माँ

दैनिक जागरण में 02/05/2015 को प्रकाशित.........