खिड़की
© Dhanendra Prawahi
बुढ़िया किसी तरह बस पर सवार हुई और पाइप पकड़ कर खड़ी हो गई। उसके हाथ में सीमेंट बोरी का बना एक झोला था जिसमें नीम, करंज और सखुआ दतवन के बंडल भरे थे। उसकी बगल की टू-बाई-टू सीट में बैठा अकेला युवक अपने स्मार्ट फोन में टीप टाप कर रहा था, दूसरी सीट खाली थी।
बस के झटके से बुढ़िया युवक पर गिरते गिरते बची।
"ऐ बूढ़ी! ठीक से खड़ी रह। सर पर चढ़ी आती है।"
बुढ़िया ने पाइप को और जोर से पकड़ लिया था। अगले स्टॉप पर एक कॉलेज गर्ल सवार हुई और युवक के बगल वाली खाली सीट के पास जा खड़ी हुई, "एक्सक्यूज़ मी!"
युवक ने खिड़की की तरफ खिसक कर तुरंत उसके लिए जगह बना दी।
'थैंक्स' कहकर लड़की सीट पर बैठ गई। तब उसने पास खड़ी बुढ़िया को सिर से पैर तक निहारा।
"सॉरी" वह तुरंत अपनी सीट छोड़कर उठ खड़ी हुई।
"दादी, यह सीट तो तुम्हारी है! तुम यहाँ बैठो।"
बुढ़िया को झिझकती देख उसने बाँह पकड़ कर उसे सीट पर बैठाया, "बैठ जाओ आराम से।"
सीट पर बैठी बुढ़िया डरी-डरी सी युवक की ओर ही देखे जा रही थी, लेकिन युवक खिड़की से बाहर ताकने लगा था।
(अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रिका सेतू के मार्च 2018 अंक में प्रकाशित)
http://www.setumag.com/2018/03/dhanendra-prawahi-laghukatha.html?m=1
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