Friday, June 11, 2010

अच्छा लगता है

कभी-कभी कुछ चीजें
बहुत ही अच्छी लगती हैं
जैसे -
किसी अनचीते   में दुबके
किन्ही भूली  बिसरी
सहज-सलोनी यादों के चूजे
मन के चिकने चबूतरे में
पहले-पहले बाहर  आते
आँखों में अचरज
सहमे-सहमे
फिसल-फिसल कर
सम्हल -सम्हल  जाते हैं....

जैसे, घर जाती
धुप सितम्बरी
और कास के उजले-उजले फूल
बरास्ते
खोयी-खोयी आँखों के
आसमान के कैनवास में
श्वेतोत्पल-दल से बादल से
उभर-उभर आते हैं
मानो  बीती बरखा के दिन के
विशाल मेघ-गज को
चुनौती देते
छोटे श्वेत  परेवे
-अच्छे लगते हैं!
.....
उनके संग हो जाना
मन पंछी का
निर्मल प्रपात- से
शुभ्र अभ्र के
बार-बार हो आर पार
उभ-चुभ होकर उड़ना
सराबोर कर लेना
भूली-भावन यादों को
ताज़ा-तरीन उपनामों से
-अच्छा लगता है!


कव्यगंगा ,रांची एक्सप्रेस (१९ जनवरी २००४,पेज ९) में प्रकाशित

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