Monday, March 11, 2013

और कितना सुख

और कितना सुख  

वृद्धाश्रम के सत्संग में आज परमभक्त पुत्र श्रवण कुमार की कथा चल रही थी।
श्रवण के अंधे माता पिता के प्राण त्याग का करुण प्रसंग था।
दुखांत कथा के मार्मिक स्पर्श ने वृद्धों की सुसुप्त पीड़ा को कुरेद कर जगा दिया।उनमे से अधिसंख्य वृद्धों के मन में संतान द्वारा की गयी उपेक्षा का दंश फिर तीव्र हो उठा।
भजन किरतान के साथ सत्संग समाप्त हुआ।सभी आश्रम वासी विश्राम को चले गए।श्रवण श्रेस्ठ के माता पिता भी अपने कमरे में आ कर लेट गए।दोनों ही बहुत देर तक चुप चाप कहीं खोये रहे।कमरे में सन्नाटा भरा रहा।वृद्धा ने ही मौन तोडा-
"तूने कथा तो सुनी?"
"सुनी तो !"
"हमारे प्राण कैसे निकलेंगे?"
"क्यों निकलेंगे हमारे प्राण?"
"अपने श्रवण  को कुछ हुआ थोड़े ही न है ?कितना बड़ा साहब तो हो गया है बेटा हमारा। गाडी बंगला , पढ़ी लिखी बीबी, खिलखिलाते बच्चे। उसे कमी किस बात की है?इधर हमें भी क्या दुःख है इस आश्रम में ?"
"तभी तो पूछती हूँ, मर जाने के लिए और कितना सुख चाहिए हमें ?"
कमरे में फिर मौन भर गया।

(कादम्बिनी, जनवरी 2008 में प्रकाशित)

No comments:

Post a Comment