Monday, March 11, 2013

माँ

माँ 


क्रुद्ध भीड़ ने अनारो को खीच कर घर से बाहर निकाला। गोद से गिरकर उसकी नन्ही बेटी तड़पती रही। बच्ची के लिए किओत्ना गिड़गिड़ायी। चीखी चिल्लाई। पर उग्र लोगों ने उसकी एक ना सुनी।पंचायत ने एकमत से उसे डायन ठहरा दिया था।कहा गया था कि -"गुन-बान सिखने के लिए वह अपने जवान मरद को खा गयी।फिर हरी मालिक के बेटे को चबा गयी। डायन होने का इससे तगड़ा और क्या सबूत होता कि इधर हरी का बेटा मरा उधर अनारो की अब- तब बेटी टुन्न-मून हो उठी।
  डायन के सिर के बाल खपच लिए गए। उसे निर्वस्त्र कर गाँव में घुमाया गया।
अँधा धुंध मार से गिर पड़ी तो मृत समझकर पड़ी छोड़ दिया गया। उसका दोष?
वह एक सलोनी युवती थी। गरीब थी। बेसहारा थी। बेसहारा मजदूरनी हो कर भी उसने एक दबंग गैर मरद को इनकार कर दिया था। बस यही!
कौन था वह गैर मर्द ?
हरी की पत्नी जहान्वी जान कर भी मजबूरन चुप थी। कितने पत्थर पूज कर जहान्वी ने एक बीमार सा बेटा पाया था।वह भी बाप के पाप तले दफ़न हो गया।हरी को चेत कहाँ?किस बेहयाई से उस  लोलुप ने निर्दोष अनारो को कुचक्र में फंसाया!उसकी नन्ही सी बेटी पर भी तरस ना खायी।
झोपडी में बच्ची के रोने की आवाज़ कमजोर पड़ती जा रही थी।
पुत्र शोक में डूबी जहान्वी का माँ का दिल शिशु के क्रंदन से फटा जाता था- सहा ना गया।हवेली की मर्यादा तोड़ दौड़ कर उसने अनारो की मरणासन्न बेटी को उठा लिया।
दूध भरे स्तन से लगते ही मानो बच्ची के प्राण लौट आये।

इधर अधमरी पड़ी अनारो को कुछ होश हुआ। वह रेंगती घिसटती अपने खपरैल तक आ गयी।
सविस्मय देखा, जहान्वी उसके चौखट पर बैठ कर उसकी बच्ची को अपनी दूध पिला रही है।अपने कलेजे के टुकड़े को एक 'माँ' की गोद में देखकर उसकी बुझती आँखों में संतोष एवं आशा की रेखाएं कौंध गयी।
उठने की कोशिश की, लेकिन देअर्द से कराह कर अनारो वहीँ ढेर हो गयी।

(पुनर्नवा , दैनिक जागरण ,15 June 2007 को प्रकाशित )

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