Monday, March 11, 2013

सरहदसेआगे

सरहद से आगे

युद्ध के दिन थे।मोर्चों पे लड़ाई चालू थी।
परस्पर सत्रु देश के दो घायल जवान पास पास पड़े मौत से जूझ रहे थे। उनके जिस्म का लगभग सारा  खून बह चुका था।  उनमे से एक दिलावर  प्यास से बेचैन हो उठा।
वह जैसे खुद से बोला -
"मेरा हलक सुखा जा रहा है।"
"पानी से भरी बोतल तो बाजू में पड़ी है।"  बहादुर ने जानकारी दे दी।
दिलावर  ने अपनी बाहों की ओर नज़र डाली।
बदनसीब हिलीं तक नहीं।
बहादुर ताड़ गया कि उसके दोनों हाथ झूल गए हैं। उसने लेटे ही लेटे ढक्कन खोल कर उसे पानी पिला दिया।
गला तर हुआ तो दिलावर की आवाज़ कुछ साफ़ हुई-
"अजीब आदमी है, इसे प्यास तक  नहीं लगाती।"
 "भूख बड़े जोरों की लगी है"....बहादुर ने 'प्यास' जैसे सुनी ही नहीं।
"दो कदम पर तो रसद की पेटी पड़ी है। उठा नहीं जाता क्या?" दिलावर की झिडकी में मिठास थी।
बहादुर ने एक नज़र अपने पावों  की ओर डाली,फिर निगाहें शुन्य में टिका दी। दिलावर ने तुरंत भांप लिया कि उसके पाँव उड़ चुके हैं। उसे खुद पर गुस्सा आ गया।
"नाहक ही डपट दिया इसे।"
वह आखिरी जोर लगा कर झटके से उठा। उसने अपने पैरों से ठेल कर पेटी बहादुर के करीब कर दी।
बहादुर ने रोटी निकाल कर एक टुकडा दिलावर के मुंह में डाला, फिर एक टुकडा अपने मुंह में रखा। पानी का एक घूंट उसकी बोतल से लिया। थोड़ा उसके मुंह में डाला।
सब कुछ अपने आप होता गया।चुप चाप।
उधर मोर्चे पे जंग जारी थी। जिंदगी के चीथड़े उड़ रहे थे।इधर यह निराली दिलदारी चल रही थी।
दो पल ही सही मौत को भी मोहलत देनी पड़ी।
इस अनूठे रिश्ते को उसने भी झुक कर सलाम किया।
जवानो के चेहरे की रौनक बढ़ गयी थी,जैसे बुझने से पहले लौ की रौशनी बढ़ जाती है।
बहादुर ने हाथ हिलाकर विदा मांगी।
दिलावर ने निगाहों से ही कहा-"अलविदा".
 

(मार्मिक कहानी विशेषांक, कादम्बिनी जून 2008 में प्रकाशित )

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