Monday, March 11, 2013

कीर्तियस्य स जीवति

कीर्तियस्य स जीवति 

एक वृद्ध सज्जन मृत्यु शय्या पर पड़े थे। वे निसंतान थे।स्वजन परिजन से घिरे उन महाशय के मुख मंडल  में वह विकलता दिखाई नहीं पड़ती थी जो सामान्यतः आसन्न-मृत्यु लोगों में होती है।वे ऐसे शांत थे मानो अपने रोम रोम से मृत्यु की अकथ्य-असह्य पीड़ा को मधुकण की तरह आत्मसात कर रहे हों।विश्रामावास्था में किसी  श्रांत  व्यक्ति की आँखों में जैसे अनायास ही निशब्द निद्रा शनैः शनैः स्वतः आती है,कुछ इसी सहजता से आज चिरनिद्रा उनके नेत्रों की ओर चली आ रही थी।उन्हें इस प्रकार अनुद्विग्न और निर्विकार देख कर सभी को विस्मय सा हो रहा था।

इस शांत सुधीर व्यक्ति ने अपने जीवन में गहन गंभीर अद्ध्ययन  किया था। अनेक सत्कर्मो से समाज की श्रद्धा अर्जित की थी।सम्मानित हुए थे।लोक सेवा के अपने कर्मो का संतोष उनके मुखारविंद पर प्रातःकालीन शितविन्दुओं की तरह झलक रहा था।

सिरहाने खड़े एक ईर्ष्यालु प्रतिवेशी से उस पुण्यात्मा का भव्य मरण-वरण सहन नहीं हुआ।उनके अंतिम क्षणों में उन्हें मानसिक क्लेश पहुंचाने के दुष्ट विचार से वह भर उठा।महात्मा के सक्रीय जीवन काल में उनके तेज़ के आगे वह कभी टिक नहीं पाता  था।आज उनके मुख में तुलसी गंगाजल देते हुए कृत्रिम सहानुभूति के स्वर में उसने पढ़ा-
"मरणंतु जाह्नवी तीरे अथवा पुत्र सन्निधौ ......."
उसे लगा की आज उसकी कुटिलता ने  उस पुरुष पर्वत राज के मर्म को क्रूरता पूर्वक बेधने में निःसंदेह सफलता प्राप्त कर ली।किन्तु .....

जैसे उस वृद्ध पुरुष की तंद्रा अकस्मात् भंग हो गयी हो, मृत्यु ने दो पल के लिए विराम सा ले लिया हो , उसके शांत मुख से ये दृढ शब्द फुट पड़े -
"कीर्तियस्य स जीवति"
और अगले ही पल पलकें सदा के लिए बंद हो गयी।
इस सुप्ति सुगंध से वातावरण महमहा उठा।
मरण जीत कर भी हार गया।
इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से हतप्रभ उस द्वेषी प्रतिवेशी के जल का चम्मच अन्यत्र जा गिरा और उसका सिर ग्लानिगर्त में गड़ गया।

(मग्बन्धु जुलाई -दिसंबर 2005 में प्रकाशित )

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