बरमेश्वर बाबू: एक स्मरांजलि
-धनेंद्र प्रवाही
पिछ्ले दिनो मैं कुछ निजी कार्यवश डॉ0 गोविंद माधव के यहाँ गया हुआ था। वे उस
समय अपने कम्प्यूटर पर स्व0 डॉ0 बरमेश्वर प्रसाद की जीवनी पर कार्यरत थे । उन्हों
ने बताया कि जीवनी साहित्य के सृजन-सम्पादन का यह आयोजन डॉ0 उमेश
प्रसाद........................औषधि विभाग, रिम्स, राँची की संकल्पना पर हो रहा है। तभी मुझे
ज्ञात हुआ कि डॉ0 उमेश बरमेश्वर बाबू के सुपुत्र हैं।
“अ वर्दी सन ऑव अ वर्दी फादर्।“ मेरे मुँह से सहसा निकल पड़ा, क्या संयोग है पिता ने जिस जीवन को युवावस्था में निराशा के गर्त से उबार कर जीवनरण के लिए सज्ज किया था उन्ही के सुयोग्य पुत्र ने उस जिंदगी की डोर को संध्याबेला में टूटने से बचा कर कर्मक्षेत्र में और कुछ वर्ष सक्रिय रहने के योग्य बना दिया । मेरी स्मृति के पन्ने आप से आप पलटने लगे।
इस विवरण को एक कहानी कहें या संस्मरण इसका निर्णय पाठकों पर छोड़ते हुए हम चित-सूत्र को वर्तमान से अतीत प्रांगण में पहुंचने का माध्यम बनाते हैं। सन 2009 के दिसम्बर का महीना था। मैं नासिका के रक्तस्राव Epistaxis की गम्भीरावस्था में रिम्स लाया गया था। मुझे उस समय रिम्स में अध्ययनरत गोविंद माधव ने हीं यहाँ लाया था। रिम्स पँहुचने के पूर्व बीमारी की चरमावस्था में मैं लम्बी बेहोसी में भी जा चुका था। तब मुझे ऐसा विश्वास हो चुका था कि अब मेरे अंतिम पड़ाव की दुरी चंद सांसों भर की है। पर ऐसा नहीं हुआ। डॉ0 उमेश प्रसाद के कुशल निर्देशन में इलाज के बाद पुनर्जीवन प्राप्त कर मैं आज उम्र के आठवें दशक की दहलीज पर दाखिल हूँ और अभी स्वस्थ एवं उद्यमशील हूँ। अस्तु इस प्रसंग को यहीं विराम देते हुए मैं आपको सुदूर अतीत के स्मृतिलोक में ले चलता हूँ। यहाँ हम मिलते हैं डॉ0 बरमेश्वर प्रसाद से जिन्हें उस समय बरमेश्वर बाबू के नाम से लोकप्रियता हासिल थी। आज से 35-36 साल पुरानी बात है। तब मेरी युवावस्था थी और मैं चार संतानो का पिता बन चुका था। दूसरे शब्दों में, दुनियादारी का गुरुतर भार मेरे कंधे पर आ चूका था और मुझे जीवन या कहें स्वस्थ जीवन की वाजिब जरूरत थी। विडंबना कहिए कि उस अवस्था में लंबी अस्वस्था के कारण मैं जीवन से ही निराश हो चुका था। मेरे अंदर असमय कालकवलित हो जाने की प्रबल आशंका घर कर चुकी थी।
“अ वर्दी सन ऑव अ वर्दी फादर्।“ मेरे मुँह से सहसा निकल पड़ा, क्या संयोग है पिता ने जिस जीवन को युवावस्था में निराशा के गर्त से उबार कर जीवनरण के लिए सज्ज किया था उन्ही के सुयोग्य पुत्र ने उस जिंदगी की डोर को संध्याबेला में टूटने से बचा कर कर्मक्षेत्र में और कुछ वर्ष सक्रिय रहने के योग्य बना दिया । मेरी स्मृति के पन्ने आप से आप पलटने लगे।
इस विवरण को एक कहानी कहें या संस्मरण इसका निर्णय पाठकों पर छोड़ते हुए हम चित-सूत्र को वर्तमान से अतीत प्रांगण में पहुंचने का माध्यम बनाते हैं। सन 2009 के दिसम्बर का महीना था। मैं नासिका के रक्तस्राव Epistaxis की गम्भीरावस्था में रिम्स लाया गया था। मुझे उस समय रिम्स में अध्ययनरत गोविंद माधव ने हीं यहाँ लाया था। रिम्स पँहुचने के पूर्व बीमारी की चरमावस्था में मैं लम्बी बेहोसी में भी जा चुका था। तब मुझे ऐसा विश्वास हो चुका था कि अब मेरे अंतिम पड़ाव की दुरी चंद सांसों भर की है। पर ऐसा नहीं हुआ। डॉ0 उमेश प्रसाद के कुशल निर्देशन में इलाज के बाद पुनर्जीवन प्राप्त कर मैं आज उम्र के आठवें दशक की दहलीज पर दाखिल हूँ और अभी स्वस्थ एवं उद्यमशील हूँ। अस्तु इस प्रसंग को यहीं विराम देते हुए मैं आपको सुदूर अतीत के स्मृतिलोक में ले चलता हूँ। यहाँ हम मिलते हैं डॉ0 बरमेश्वर प्रसाद से जिन्हें उस समय बरमेश्वर बाबू के नाम से लोकप्रियता हासिल थी। आज से 35-36 साल पुरानी बात है। तब मेरी युवावस्था थी और मैं चार संतानो का पिता बन चुका था। दूसरे शब्दों में, दुनियादारी का गुरुतर भार मेरे कंधे पर आ चूका था और मुझे जीवन या कहें स्वस्थ जीवन की वाजिब जरूरत थी। विडंबना कहिए कि उस अवस्था में लंबी अस्वस्था के कारण मैं जीवन से ही निराश हो चुका था। मेरे अंदर असमय कालकवलित हो जाने की प्रबल आशंका घर कर चुकी थी।
उन दिनो राँची आर0 एम0 सी0 एच0 के औषधि विभागाध्यक्ष डॉ0 बरमेश्वर
बाबू का बड़ा नाम यश था। कोई उन्हे भारत का सबसे बड़ा डॉक्टर बताता तो कोई एशिया फेम
का फिजिशियन कहता। मेरे स्वजन शुभेच्छु इलाज के लिए मुझे उनके ही पास जाने का
परामर्श दे रहे थे।
वह दुर्गापूजा के त्योहार का समय थ। सर्वत्र भक्तिमय वातावरण। सार्वजनिक उत्साह और अवकाश के दिन। मैं अपने अनुज(कामदेव नाथ मिश्र, अवकाश प्राप्त प्राचार्य प्ल्स-2, रातू, राँची) के साथ बरमेश्वर बाबू के आवास में पहुँच गया। आतुर के चित रहे ना चेतू...........पर्व त्योहार की व्यस्तता का कुछ भी ख्याल नहीं किया। कहावत है, अ हेल्दि माइंड इन हेल्दि बडी। जाहिर है लम्बी रुग्णता के कारण मेरा तन ही नहीं मन भी रुग्ण तो था ही। मैं अपनी ही दुश्चिंताओं में डूबा हुआ बुलावे की प्रतीक्षा में बैठा था। संयोग से लम्बी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। नाम धाम की औपचारिकता पुरी हुई तो मेरे जी में जी आया। “चलो डांट फटकार तो नहीं मिली कि इतने दिनों तक क्या कर रहे थे? अब दिखाने आए हैं...............?” मैं इत्मिनान हुआ “क्या हुआ पंडित जी! पुजे पाठ के दिन में बिमार पड़ गए?” ये आत्मीयता और सहानुभूति भरे शब्द डॉक्टर साहब के थे। सुनते ही क्षण मात्र में मेरा सारा कल्पित भय भाग गया। फिर तो मैं ने निर्भीक भाव से अपनी सारी व्यथा कथा सुना डाली। मुझे प्रेसक्रिप्सन थमाते हुए डॉक्टर साहेब ने शब्द कहे, “कहाँ मिश्रा जी! आपको तो कोई बिमारी है ही नहीं। जाइये पूआ-पूड़ी खाइये। दवा भी खा लीजिएगा। घूमते फिरते पूजापंडाल देखते निकल जाइये।“ उनके स्वर की सरलता और विनोदशीलता ने मुझे मुग्ध कर दिया। भूल ही गया कि मैं एक पुराना मरीज हूँ और इतने बड़े डॉक्टर के सामने हूँ।
बरमेश्वर बाबू के आवास से निकलते हुए मैं खुद को एकदम बदला हुआ महसूस कर रहा था। मेरे अंदर जिंदगी की उम्मीद जग गई थी। “इतने बड़े डॉक्टर ने कह दिया, कोई बीमारी नहीं है। “दवा दुकान पहुँचते हुए रास्ते में ही कामदेव ने भी मेरा मनोबल दृढ़ कर दिया था, आप अपने स्वास्थ्य को लेकर अब फालतू चिंता करना छोड़ दीजिए। जब डॉ0 बरमेश्वर प्रसाद कह दिए, आपको कोई बीमारी नहीं है तो नहीं है बीमारी। फिर भी दवा का बिल एकदम हीं छोटा देखकर मैं संदेह में पड़ गया। अपना असंतोष प्रकट करते हुए मैं नें जिज्ञासा की तो दवा दूकान वाले की झिड़की मिली, “ बरमेश्वर बाबू को दवा का नाम मालूम होता तभी तो सारी दवाएँ आपकी पुर्जी पर लिख देते? महाराज! जाइये जो दवा लिखे हैं सो खाइये। बरमेश्वर बाबू का पुर्जा है, बरमेश्वर बाबू का.............।“
आज एक लम्बा समय गत हो चुका है। दुनियाँ के नियमानुसार आम आधि-व्याधियाँ जीवन में आईं-गईं। रोग दुख हुए-मिटे। 2009 की निराशा से उबर कर नवजीवन की प्राप्ति की चर्चा हो चुकी है। वह एक अतीत जो उस दिन डॉ0 गोविंद के आवास में सहसा जिवंत हो उठा- डॉ0 बरमेश्वर प्रसाद के असामयिक निधन से पुरजन-परिजन समेत न केवल सारी राँची बल्कि उनके शिष्यों और उपकृतों की पूरी दुनियाँ ही बिलख पड़ी थी। कहते हैं राँची में शोकाकुलों का इतना बड़ा सैलाब देखा नहीं गया थ। और भी ऐसी विभूतियों की इति अपूरणीय क्षति कही जाती है।
बरमेश्वर बाबू ने कितनो को नई जिंदगी दी । कितनो की दुनियाँ आबाद की। कीर्तियस्य स जीवती, वे आज भी जीवित हैं।
“मैन लिव्स इन डीड्स नाट इन इयर्स” उस पुण्यात्मा के परिजन फुलें-फलें। दीर्घ जीवन प्राप्त कर सानंद लोक सेवा रत रहें।
वह दुर्गापूजा के त्योहार का समय थ। सर्वत्र भक्तिमय वातावरण। सार्वजनिक उत्साह और अवकाश के दिन। मैं अपने अनुज(कामदेव नाथ मिश्र, अवकाश प्राप्त प्राचार्य प्ल्स-2, रातू, राँची) के साथ बरमेश्वर बाबू के आवास में पहुँच गया। आतुर के चित रहे ना चेतू...........पर्व त्योहार की व्यस्तता का कुछ भी ख्याल नहीं किया। कहावत है, अ हेल्दि माइंड इन हेल्दि बडी। जाहिर है लम्बी रुग्णता के कारण मेरा तन ही नहीं मन भी रुग्ण तो था ही। मैं अपनी ही दुश्चिंताओं में डूबा हुआ बुलावे की प्रतीक्षा में बैठा था। संयोग से लम्बी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। नाम धाम की औपचारिकता पुरी हुई तो मेरे जी में जी आया। “चलो डांट फटकार तो नहीं मिली कि इतने दिनों तक क्या कर रहे थे? अब दिखाने आए हैं...............?” मैं इत्मिनान हुआ “क्या हुआ पंडित जी! पुजे पाठ के दिन में बिमार पड़ गए?” ये आत्मीयता और सहानुभूति भरे शब्द डॉक्टर साहब के थे। सुनते ही क्षण मात्र में मेरा सारा कल्पित भय भाग गया। फिर तो मैं ने निर्भीक भाव से अपनी सारी व्यथा कथा सुना डाली। मुझे प्रेसक्रिप्सन थमाते हुए डॉक्टर साहेब ने शब्द कहे, “कहाँ मिश्रा जी! आपको तो कोई बिमारी है ही नहीं। जाइये पूआ-पूड़ी खाइये। दवा भी खा लीजिएगा। घूमते फिरते पूजापंडाल देखते निकल जाइये।“ उनके स्वर की सरलता और विनोदशीलता ने मुझे मुग्ध कर दिया। भूल ही गया कि मैं एक पुराना मरीज हूँ और इतने बड़े डॉक्टर के सामने हूँ।
बरमेश्वर बाबू के आवास से निकलते हुए मैं खुद को एकदम बदला हुआ महसूस कर रहा था। मेरे अंदर जिंदगी की उम्मीद जग गई थी। “इतने बड़े डॉक्टर ने कह दिया, कोई बीमारी नहीं है। “दवा दुकान पहुँचते हुए रास्ते में ही कामदेव ने भी मेरा मनोबल दृढ़ कर दिया था, आप अपने स्वास्थ्य को लेकर अब फालतू चिंता करना छोड़ दीजिए। जब डॉ0 बरमेश्वर प्रसाद कह दिए, आपको कोई बीमारी नहीं है तो नहीं है बीमारी। फिर भी दवा का बिल एकदम हीं छोटा देखकर मैं संदेह में पड़ गया। अपना असंतोष प्रकट करते हुए मैं नें जिज्ञासा की तो दवा दूकान वाले की झिड़की मिली, “ बरमेश्वर बाबू को दवा का नाम मालूम होता तभी तो सारी दवाएँ आपकी पुर्जी पर लिख देते? महाराज! जाइये जो दवा लिखे हैं सो खाइये। बरमेश्वर बाबू का पुर्जा है, बरमेश्वर बाबू का.............।“
आज एक लम्बा समय गत हो चुका है। दुनियाँ के नियमानुसार आम आधि-व्याधियाँ जीवन में आईं-गईं। रोग दुख हुए-मिटे। 2009 की निराशा से उबर कर नवजीवन की प्राप्ति की चर्चा हो चुकी है। वह एक अतीत जो उस दिन डॉ0 गोविंद के आवास में सहसा जिवंत हो उठा- डॉ0 बरमेश्वर प्रसाद के असामयिक निधन से पुरजन-परिजन समेत न केवल सारी राँची बल्कि उनके शिष्यों और उपकृतों की पूरी दुनियाँ ही बिलख पड़ी थी। कहते हैं राँची में शोकाकुलों का इतना बड़ा सैलाब देखा नहीं गया थ। और भी ऐसी विभूतियों की इति अपूरणीय क्षति कही जाती है।
बरमेश्वर बाबू ने कितनो को नई जिंदगी दी । कितनो की दुनियाँ आबाद की। कीर्तियस्य स जीवती, वे आज भी जीवित हैं।
“मैन लिव्स इन डीड्स नाट इन इयर्स” उस पुण्यात्मा के परिजन फुलें-फलें। दीर्घ जीवन प्राप्त कर सानंद लोक सेवा रत रहें।
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